गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

मै नहीं हम

          विविधता प्रकृति का प्रमुख गुण है । हमारे चारो ओर विविध रंग, वस्तुएँ एवं पदार्थ दिख जाते हैं । मनुष्यों में भी प्रकृति के इसी गुण के कारण विविध रंगरूप, आयु एवं वर्ग के लोग दिखते हैं । अगर पृथ्वी में किसी एक ही तरह के व्यक्तियों का समूह शेष रह जाए तो प्रलय आ सकता है । लेकिन विश्व के कुछ भागों में इसी विचारधारा को बढ़ावा मिल रहा है । किसी भी देश के चहुर्मुखी विकास के लिए सामाजिक समरसता आवश्यक है और यह सभी वर्ग के समूहों के पारस्परिक सम्बन्ध से ही सम्भव है ।
           सामाजिक समरसता के कारण ही देवालयों में पाषण प्रतिमाएँ श्रद्धालुओं का कल्याण करती प्रतीत होती हैं । यदि मंदिरों में सामाजिक समरसता न हो और किसी एक ही परिवार अथवा जाति समूह का वर्चस्व हो तो प्रतिमाओं की प्रार्थना में वैसा प्रभाव नही दिखेगा जितना सार्वजनिक मंदिरों की पूजा अर्चना में दिखाई पड़ता है । घर में बने पकवान उतने स्वादिष्ट नही लगते जितना सभी वर्गों के हाथ से बना प्रसाद भण्डारे में स्वादिष्ट लगता है ।
           सामाजिक समरसता का एक अन्य उदाहरण विद्यालयों में देखने को मिलता है । जहां समाज के सभी वर्गों के बच्चे अध्ययन कर अपने साथ देश की प्रगति का माध्यम बनते हैं । विद्यालयों की सफलता एवं बच्चों की प्रतिभा तथा क्षमता प्रदर्शन का एक प्रमुख कारण विद्यालयों की सामाजिक समरसता युक्त संरचना है । जहां भी इसके इतर चिन्हित वर्ग अथवा समुदाय के लिए विद्या अध्ययन की व्यवस्था बनाई गई, उन्हें समान्य विद्यालयों की भांति भी सफलता प्राप्त नही हो सकी । आदि भाषा एवं समृद्ध देवभाषा के रूप में पहचानी जाने वाली संस्कृत भाषा में आज कितने लोग वार्तालाप करने में सक्षम हैं ? कुछ धार्मिक कार्यों में मन्त्रोचार के अतिरिक्त अपने आसपास संस्कृत सुन पाना दुर्लभ होता जा रहा है, क्योंकि दशकों पूर्व कुछ विद्धानों ने संस्कृत लिखने और पढ़ने का अधिकार सीमित करते हुए केवल एक जाति वर्ग के बच्चों पर ध्यान केन्द्रित किया । आज भी कुछ अध्ययन केन्द्र तथा गुरूकुल में सभी को प्रवेश नही दिया जाता । वहीं पौराणिक काल में जन जन की सामान्य बोलचाल की भाषा संस्कृत को अब प्रचार प्रसार का सहारा लेना पड़ रहा है और इसे पुनः गौरव पूर्ण स्थान प्रदान करने के लिए कुछ संस्थाएं कार्यरत हैं ।
           उक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि विकास एवं विनाश के लिए सामाजिक समरसता का कितना महत्व है । सामाजिक समरसता “मै” की बजाए “हम” की विचारधार को प्रोत्साहित करती है । 21वीं सदी में जब सम्पूर्ण विश्व इस बात से आश्वस्त है कि भारतवर्ष सभी देशों का नेतृत्व एवं सामंजस्य का सार्मथ्य रखता है और इंटरनेट जैसे अद्भुत अविष्कार से विश्व स्तर पर सामाजिक समरसता का वातावरण बनने लगा है ऐसे में भारत के प्रत्येक नागरिक को कटुता, बैरभाव, अस्पृश्यता एवं ऊंच-नीच की बेड़ियों से मुक्त होकर सामाजिक समरसता के वातावरण को पल्लवित पोषित करना होगा, अन्यथा अपने हाथ से अपनी पीठ थपथपाते हुए हम विश्वगुरू बनने के स्वप्न में गोते लगाते रह जायेंगे ।

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